Saturday, October 07, 2006

गुमनाम शहीद


गुमनाम शहीद ( कहानी)
अभी-अभी बरसात थमी थी फिर भी आसमान पर काले बादल छाये हुए थे। कभी-कभी बिजली की चमक के साथ वहाँ की नीरवता को भंग करते ठंडी हवा के झोके बार-बार आ रहे थे।पानी भरे गड्डों से मेढ़कों की टर्र टर्र आवज आ रही थी तो जुगनुओं की चमक के साथ कसासियाँ व झींगुरों की कर्कश ध्वनि। साँय-साँय करता अँधेरा एक अजीब सा भयानक वातावरण बनाने में अपना योगदान दे रहा था। हवा के चलने से बंगले के अहाते में लगें ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की डालियाँ झूमती हुई दिखाई देती और कभी-कभी चरर की आवाज जब सुनाई पड़ती तो डाल पर बैठे बंदरों के दल किट-किट की आवाज करते तथा उस अँधेरे में भी इस डाल से उस डाल पर इसलिये उछल कूद करते क्योंकि जान सबको प्यारी होती है।
उसी समय कर्नल ने अपनी कलाई पर बँधी रेडियम वाली घड़ी पर नजर डाली तो देखा रात के दो बज रहे थे। देशी नस्ल का कुत्ता जो ड्राइंग रूम में चैन से बँधा था, जाग रहा था। एक फारनर बँगले के पिछवाड़े बनी खाली खोली (आऊट हाऊस) में सोया पड़ा था।
वैसे वह आउट हाऊस उस छाबनी के रहवासी इलाके में संतरियों का ठहरने का स्थान था। परंतु जब से फौज का एक बड़ा भाग बार्डर पर चला गया तब से खाली पड़ा था। डिफेन्स अथार्टी ने संतरियों की पैदल गस्त खत्म करके उसकी जगह जीप द्वार फौजी इलाके की पेट्रोलिंग करने की नयी व्यवस्था कर दी थी जो घंटे-घंटे के अंतराल से इलाके में चक्कर मारा करती इसके बावजूद इमरजेन्सी में सर्चलाईट व साईरन की व्यवस्था यथावत थी। यह बँगला उस रहवासी इलाके का अंतिम बँगला था जिसके आगे पीछे व बाजू में पक्की चौड़ी डम्मर की सड़क थी। लड़ाई की आशंका देखते हुए एहतियात के तौर पर ब्लैक आऊट रखना पड़ता। खिड़कियों व दरवाजों के शीशों पर कागज चिपकाना अविवार्य था ताकि रोशनी घरों के बाहर न जा सके। सड़क से लगी हुई घनी घास उग रही थी परंतु उस घास को मवेशी नहीं चरते थे। क्यों? दरयाफ्त करने पर मालूम पड़ा कि वह काँस जात का घास था जो महज रस्सी बनाने के काम आ सकता था।
कर्नल उस फारनर के पास आहिस्ता-आहिस्ता गया था सोते से जगाया। वह फारनर भी उस आउट हाऊस से चुपचाप निकल कर सीधे से बँगले के ड्राइंग हाल में दाखिल हुआ। कर्नल ने उस फारनर के हाथ में महत्वपूर्ण फौजी सूचनाओं से भरे एक सीलबंद लिफाफा थमा दिया। जिसे फारनर ने कमीज की बटन खोलकर, चोर पाकेट में इतमिनान से रखकर बटन पुन: ज्यों के त्यों जड़ दिये। साईलेन्सर लगा पिस्तौल चमडे के खोल में डाल मय कारतूस वाले डब्बे के कमर पट्टे में कस, पूरी की पूरी बियर अपने गले के नीचे उतार ली। ऊनी जरसी पहन एक थैले में चाकू रस्सी आदि छोटे-मोटे औजार रख पीठ से कस लिया। ऊपर से रेनकोट पहन सिर पर रैकजिन का टोपा कसा।
कुत्ता, देशी नस्ल का कुत्ता। यह सब बडे ध्यान से देख रहा था। कुत्ता देख रहा था कि कर्नल ने उस फारनर को रूमाल हिलाकर इशारों-इशारों में बिदा किया तो फारनर ने भी हाथ हिलाकर टाटा कहते हुए मौन ध्न्यवाद दिया। फारेनर चल पड़ा बँगले की पिछवाडे वाली डम्मर सड़क की तरफ जिधर लगी हुई थी ऊँची-ऊँची घास।
इधर कर्नल ने कुत्ते को चेन आफ कर दिया। ड्राइंर्ग हाल के बाहर कर दिया ताकि अँधेरे में बँगले की गस्त करता रहे, फिर ड्राइंग रूम में रखी अलमारी के दरवाजे खोले और रम की बोतल गिलास में उडेल़ सोडावाटर के साथ गट गट करके तब तक पीता चला गया जब तक कि होश में था और वह वहीं बिस्तर पर लुढ़क गया। हाल के दरवाजे तो पहले ही बंद कर चुका था।
अभी उस फारनर ने डम्मर सड़क पार ही की थी विपरीत दिशा में सर्चलाईट की रोशनी देखी अस्तु वह ऊँची नीची घास में दुबक गया और अपनी कोहनी की बल क्रालिंग करते हुए आगे सरकने लगा जिससे घास में सरसराहट पैदा हुई जिसे सुन पेड़ पर बैठे बंदर किट किट की आवाज करने लगे। कुत्ता जो बँगले के अहाते में था भौंकते हुए उधर भागा। कुत्ता हिन्दुस्तान का जानवर।
कुत्ता उस फारनर के नजदीक पहुँच गया। अब उसने भौंकना बंद कर अपने मुँह से उसकी टाँग पकड़ने की कोशिश की तो फारनर ने अपने पैरों में पहने नाल लगे भारी भरकम जूते की ठोकर उसके मुँह पर दे मारी, जिससे कुत्ते के मुँह पर चोट आई तथा थोड़ा खून बहने लगा। मगर वह कुत्ता क्या था? साक्षात यमराज और उस विदेशी का गला पकड़ने की कोशिश करने लगा पिस्तोल निकाली, कारतूस लोड किया तथा दे मारी कुत्ते को। कुत़्ते की अगली दोनों टाँगों के बीच, पिस्तौल की गोली भयंकर जख्म करते हुए, शरीर के उस पार हो गई, फिर भी कुत्ते में अभी चेतना थी। उसका दिमाग चल रहा था। अनायास ही उसके मुँह से निकला,``जय जन्मभूमि''।
यह सुन वह विदेशी हक्का बक्का-सा रह गया और उसी हड़बडाह़ट में उसने अपने सर पर बँधा रेक्जीन का टोपा उतारा और एकाएक ही उसके मुँह से निकल पड़ा,``सलाम ........बहुत बहुत सलाम। गुमनाम शहीद।
***
-पं० जयदेव वशिष्ट

No comments: