Monday, February 19, 2007

जगदीशप्रसाद सारस्वत विकल



जगदीशप्रसाद सारस्वत 'विकल'

Tuesday, October 24, 2006

मधु का प्याला












जयदेव वशिष्ठ
३१ जुलाई १९२५ ई० को खिरकिया, हरदा म०प्र० में जन्में जयदेव वशिष्ठ ८२ वर्ष की अवस्था में भी कविता, कहानी, नाटक लेखन में सक्रिय हैं।अब तक आपकी प्रतीक्षा, नर्मदाशतक, दर्पण, मधु का प्याला और मुक्तिदाता पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। श्री वशिष्ठ जी नगर की साहित्यिक गतिविधियों में पूरी तल्लीनता के साथ सहभागिता करते हैं और प्रतिदिन कई किलोमीटर पैदल चलने में युवाओं को भी शर्मिन्दा कर देते हैं। आपकी रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं हैं तथा आकाशवाणी से भी प्सारित हुई हैं।
सम्पर्क सूत्र -
शांतिनगर, आई० टी० आईऔ रोड
होशंगाबाद म०प्र०
दूरभाष- 07574- 257558


मधु का प्याला


खिचीं हाथ में वे रेखायें
कर से पकड़ लिया प्याला
किस्मत में लिखवाकर लाया
कहलाया पीनेवाला
दुनियावालो ! नियति यही थी
बतलाओ ! मैं क्या करता
बदा भाग्य में अदा कर रहा
पीकर के ! मधुका प्याला।।


आज एक, दो जाम दिये कल
परसों प्याले पर प्याला
किन्तु, न प्यास बुझा पायेगा
सागर भर, पीकर-हाला
यह, प्यास ही ऐसी है, मित्रों
प्यासा रहता पीनेवाला
ऐसे प्यासों को सादर, मैं
देता हूँ ! मधु का प्याला




करी आरती, हुई प्रार्थना
मंदिर पर पड़ता ताला
मसज़िद ऊपर बाँग लगाकर
चला गया मसज़िद वाला
किन्तु, यहाँ हाला पीने पर
दुनिया वालो! क्या गुजरी
पीकर के बेहोश पड़ा पर
था पकड़े! मधु का प्याला।।


मेरे हितू न पूछो मुझसे
मुश्किल में मम जान फँसी
एक तरफ है, मेरी दुनिया
एक तरफ मेरी-हाला
किसको मैं स्वीकार करूँ या
किसको मैं इन्कार करूँ
मुश्किल मेरी दुनिया छोडूँ
या छोडू! मधु का प्याला।।


मेरे हितू न मुझसे पूछो
कितनी पीली है हाला
प्याले पर प्याले ढ़ाले हैं
अन्तर में उभरा छाला
अब, छोडूँ तो जान तडफती
पीता हूँ तो, मौत खड़ी
असमंजस में मुझे डालता
बार-बार मधु का प्याला।


शुक्रवार को मिला नवाजी
सज़दा करते मसज़िद में
रविवार को गिरजाघर में
याद किया जाने वाला
खोले वंद-कपाट समय से
पंडित जी मंदिर-वाला
दुनियावालों ! जब जी चाहे
भर पी लो ! मधु का प्याला।।


किसी समय जिसके आँगन में
प्याला स्र्न झुन बजती थी
कभी उसी आँगन के भीतर
संन्यासी जपता माला
किसी समय जिसके आँगन में
लक्ष्मी पूजन होता था।
कभी उसी आँगन के भीतर
ढ़ला करा! मधु का प्याला।।


किसी समय जिनको लगते थे
कारा गृह देवालय से
बड़ी हथकड़ियाँ के आभूषण
तन पर धारण करते थे
फाँसी का फंदा गरदन का
थी, जिनकी तुलसी-माला
इन्कलाब का मंच लवों पर
देश भक्ति ! मधु का प्याला।।


मेरा मन जब विचलित होता
कहता आ, ``साक़ीवाला''
राग, द्वेष-प्रतिशोध, वैर पर
पी-लेना मेरी हाला
मेरे भीतर द्वन्द मचा हो
क्लेश नहीं-हिक पाता है
मुझ पर मादकता हाला की
छा जाता! मधु का प्याला।।



मेरे प्याले से झलकेगी
जहाँ-जहाँ भादक हाला
वहाँ-वहाँ हर दिन उभरेगा
एक नया पीने वाला
मीनारें चढ़-मुल्ला-बोले
पंडित-फेरेगा-माला
जिओ और जीने दो सबको
पीने दो! मधु का प्याला।।


शिकन न उभरी चहरे ऊपर
मस्ती में पीने वाला
हाय-हाय कर मैंने अब तक
कितना जीवन जी डाला
उसे मिली पीने को हाला
मानों सब कुछ पा जाता
बची न कोई और कामना
पीकर के! मधु का प्याला।।


अलग-अलग रंगों में लेकिन
माटी निर्मित-हर प्याला
थल से नभ की ऊँचाई से
भी ऊँची साक़ीवाला
दुनिया भर के सागर जितने
इतनी भर- लाया हाला
मानव जीवन के दर्शन से
भरा गया! मधु का प्याला।।



विश्वात्मा! मेरा अगज़
प्याले में सागर भरता
कितना बड़ा रहा हाला गृह
कितना बड़ा रहा प्याला
चुस्की एक लगाकर किसमें
सारा सागर पी डाला
पिया गया था जिससे सागर
छोड़ गया ! मधु का प्याला।।


मेरे वन्धु यहाँ जीते है
पी पी कर अपनी हाला
अपनी-अपनी है इच्छायें
अपना-अपना है प्याला
दिन में दूनी! रात चौगुनी
बढ़ती जाती अभिलाषी
भटक रहे मस्र्थल में भगसे
मृग-तृष्णा! मधु का प्याला।।


इक दौर नहीं ! दो दौर नहीं
हर दौर यही होने वाला
हर वार मुझे चूमा करता
हर छाला का पीने वाला
सहलाया जाता तन मेरा
काली माटी का प्याला
था मतलब, पीने भर से फिर
दूर किया! मधु का प्याला।।


सभी-बराबर हिस्सा पाते
हाला गृह-आने वाले
नहीं किसी को कम या ज्यादा
वित रित की जाती हाला
इस पर भी है नहीं अपेक्षा
बदले में पा जाने की
फर्ज-समझ कर पी साक़ी से
झुक कर लो! मधु का प्याला।।

-पं० जयदेव वशिष्ठ
-०००-

Saturday, October 07, 2006

गुमनाम शहीद


गुमनाम शहीद ( कहानी)
अभी-अभी बरसात थमी थी फिर भी आसमान पर काले बादल छाये हुए थे। कभी-कभी बिजली की चमक के साथ वहाँ की नीरवता को भंग करते ठंडी हवा के झोके बार-बार आ रहे थे।पानी भरे गड्डों से मेढ़कों की टर्र टर्र आवज आ रही थी तो जुगनुओं की चमक के साथ कसासियाँ व झींगुरों की कर्कश ध्वनि। साँय-साँय करता अँधेरा एक अजीब सा भयानक वातावरण बनाने में अपना योगदान दे रहा था। हवा के चलने से बंगले के अहाते में लगें ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की डालियाँ झूमती हुई दिखाई देती और कभी-कभी चरर की आवाज जब सुनाई पड़ती तो डाल पर बैठे बंदरों के दल किट-किट की आवाज करते तथा उस अँधेरे में भी इस डाल से उस डाल पर इसलिये उछल कूद करते क्योंकि जान सबको प्यारी होती है।
उसी समय कर्नल ने अपनी कलाई पर बँधी रेडियम वाली घड़ी पर नजर डाली तो देखा रात के दो बज रहे थे। देशी नस्ल का कुत्ता जो ड्राइंग रूम में चैन से बँधा था, जाग रहा था। एक फारनर बँगले के पिछवाड़े बनी खाली खोली (आऊट हाऊस) में सोया पड़ा था।
वैसे वह आउट हाऊस उस छाबनी के रहवासी इलाके में संतरियों का ठहरने का स्थान था। परंतु जब से फौज का एक बड़ा भाग बार्डर पर चला गया तब से खाली पड़ा था। डिफेन्स अथार्टी ने संतरियों की पैदल गस्त खत्म करके उसकी जगह जीप द्वार फौजी इलाके की पेट्रोलिंग करने की नयी व्यवस्था कर दी थी जो घंटे-घंटे के अंतराल से इलाके में चक्कर मारा करती इसके बावजूद इमरजेन्सी में सर्चलाईट व साईरन की व्यवस्था यथावत थी। यह बँगला उस रहवासी इलाके का अंतिम बँगला था जिसके आगे पीछे व बाजू में पक्की चौड़ी डम्मर की सड़क थी। लड़ाई की आशंका देखते हुए एहतियात के तौर पर ब्लैक आऊट रखना पड़ता। खिड़कियों व दरवाजों के शीशों पर कागज चिपकाना अविवार्य था ताकि रोशनी घरों के बाहर न जा सके। सड़क से लगी हुई घनी घास उग रही थी परंतु उस घास को मवेशी नहीं चरते थे। क्यों? दरयाफ्त करने पर मालूम पड़ा कि वह काँस जात का घास था जो महज रस्सी बनाने के काम आ सकता था।
कर्नल उस फारनर के पास आहिस्ता-आहिस्ता गया था सोते से जगाया। वह फारनर भी उस आउट हाऊस से चुपचाप निकल कर सीधे से बँगले के ड्राइंग हाल में दाखिल हुआ। कर्नल ने उस फारनर के हाथ में महत्वपूर्ण फौजी सूचनाओं से भरे एक सीलबंद लिफाफा थमा दिया। जिसे फारनर ने कमीज की बटन खोलकर, चोर पाकेट में इतमिनान से रखकर बटन पुन: ज्यों के त्यों जड़ दिये। साईलेन्सर लगा पिस्तौल चमडे के खोल में डाल मय कारतूस वाले डब्बे के कमर पट्टे में कस, पूरी की पूरी बियर अपने गले के नीचे उतार ली। ऊनी जरसी पहन एक थैले में चाकू रस्सी आदि छोटे-मोटे औजार रख पीठ से कस लिया। ऊपर से रेनकोट पहन सिर पर रैकजिन का टोपा कसा।
कुत्ता, देशी नस्ल का कुत्ता। यह सब बडे ध्यान से देख रहा था। कुत्ता देख रहा था कि कर्नल ने उस फारनर को रूमाल हिलाकर इशारों-इशारों में बिदा किया तो फारनर ने भी हाथ हिलाकर टाटा कहते हुए मौन ध्न्यवाद दिया। फारेनर चल पड़ा बँगले की पिछवाडे वाली डम्मर सड़क की तरफ जिधर लगी हुई थी ऊँची-ऊँची घास।
इधर कर्नल ने कुत्ते को चेन आफ कर दिया। ड्राइंर्ग हाल के बाहर कर दिया ताकि अँधेरे में बँगले की गस्त करता रहे, फिर ड्राइंग रूम में रखी अलमारी के दरवाजे खोले और रम की बोतल गिलास में उडेल़ सोडावाटर के साथ गट गट करके तब तक पीता चला गया जब तक कि होश में था और वह वहीं बिस्तर पर लुढ़क गया। हाल के दरवाजे तो पहले ही बंद कर चुका था।
अभी उस फारनर ने डम्मर सड़क पार ही की थी विपरीत दिशा में सर्चलाईट की रोशनी देखी अस्तु वह ऊँची नीची घास में दुबक गया और अपनी कोहनी की बल क्रालिंग करते हुए आगे सरकने लगा जिससे घास में सरसराहट पैदा हुई जिसे सुन पेड़ पर बैठे बंदर किट किट की आवाज करने लगे। कुत्ता जो बँगले के अहाते में था भौंकते हुए उधर भागा। कुत्ता हिन्दुस्तान का जानवर।
कुत्ता उस फारनर के नजदीक पहुँच गया। अब उसने भौंकना बंद कर अपने मुँह से उसकी टाँग पकड़ने की कोशिश की तो फारनर ने अपने पैरों में पहने नाल लगे भारी भरकम जूते की ठोकर उसके मुँह पर दे मारी, जिससे कुत्ते के मुँह पर चोट आई तथा थोड़ा खून बहने लगा। मगर वह कुत्ता क्या था? साक्षात यमराज और उस विदेशी का गला पकड़ने की कोशिश करने लगा पिस्तोल निकाली, कारतूस लोड किया तथा दे मारी कुत्ते को। कुत़्ते की अगली दोनों टाँगों के बीच, पिस्तौल की गोली भयंकर जख्म करते हुए, शरीर के उस पार हो गई, फिर भी कुत्ते में अभी चेतना थी। उसका दिमाग चल रहा था। अनायास ही उसके मुँह से निकला,``जय जन्मभूमि''।
यह सुन वह विदेशी हक्का बक्का-सा रह गया और उसी हड़बडाह़ट में उसने अपने सर पर बँधा रेक्जीन का टोपा उतारा और एकाएक ही उसके मुँह से निकल पड़ा,``सलाम ........बहुत बहुत सलाम। गुमनाम शहीद।
***
-पं० जयदेव वशिष्ट